Thursday, August 9, 2018

ब्लॉग: मोदी तो यही चाहेंगे कि मुक़ाबला राहुल से हो जाए

हर पहलवान यही चाहता है कि दंगल वही जीते, हर पहलवान यही चाहता है कि चुनौती देने वाले को आसानी से पटका जा सके लेकिन, वो दिखे तगड़ा ताकि उसे चित करते ही अपना खूँटा और मज़बूती से गड़ जाए.
इस मामले में मोदी की नज़रों में राहुल गांधी सबसे फिट कैंडिडेट हैं. भले ही वो सदन में विपक्ष के नेता की हैसियत भी हासिल न कर सके हों, भले ही पंजाब के अलावा किसी राज्य में आज उनकी कोई ठोस हैसियत न हो, उनको हराना नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी की साझी विरासत को हराने जैसा दिखेगा या दिखाया जाएगा, और ये मुश्किल भी नहीं होगा.
दरअसल, पिछले सवा चार वर्षों में जिस तरह विधानसभाओं के ही नहीं, स्थानीय निकायों के चुनाव पीएम मोदी के नाम पर लड़े गए हैं, यहाँ तक कि यूनिवर्सिटियों के छात्र संघ के चुनाव ऐसे लड़े गए हैं, मानो अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव हों जिसमें एक तरफ़ मोदी हैं, दूसरी तरफ़ कोई और.
चार साल के कार्यकाल में कभी एक खुला संवादादाता सम्मेलन न कराने वाले प्रधानमंत्री की इमेज चमकाने के लिए मंगलयान के कुल ख़र्च से कई गुना ज़्यादा पैसे विज्ञापन और प्रचार पर ख़र्च किए गए हैं, हर पेट्रोल पंप पर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की तुलना में काफ़ी मोटी रकम भर रहे लोगों को उज्ज्वला स्कीम की सफलता के दो मुस्कुराते चेहरे दिखाए जाते हैं, एक पीएम, दूसरी ग़रीब गृहिणी.
ये जानना दिलचस्प होगा कि उज्ज्वला स्कीम के तहत कनेक्शन लेने वाली कितनी महिलाओं ने दोबारा भरा हुआ सिलिंडर ख़रीदा?
जवाब नहीं मिलेगा, ठीक वैसे ही जैसे नोटबंदी के बाद जमा हुए नोट आज तक नहीं गिने जा सके. अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और प्रशांत भूषण ने सवाल पूछे हैं, देखें क्या और कैसा जवाब मिलता है, इन तीन में से दो तो वाजपेयी सरकार के कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं. उन्हें वामपंथी, भ्रष्ट या कांग्रेसी बताकर ख़ारिज करना आसान नहीं होगा.

वैसे यहाँ मुद्दा वो है भी नहीं, बात मुख़्तसर ये है कि सफल-विफल योजनाओं की घोषणा और उसके बाद बहरहाल उनके सफल होने के ऐलान के साथ पीएम मोदी का देश भर में रेडियो, टीवी, प्रिंट और आउटडोर बिलबोर्ड पर जितना प्रचार किया गया है, उसके मुक़ाबले विपक्ष का कोई नेता कहाँ टिक सकता है?
हालाँकि, ये कहना ज़रूरी है कि दिल्ली के अरविंद केजरीवाल, तेलंगाना के केसीआर, आंध्र के चंद्रबाबू या बंगाल की ममता, जिनके पास भी पब्लिक का पैसा है वो प्रचार में लुटा रहे हैं, विशुद्ध रूप से मोदी की देखा-देखी. राहुल के पास न तो ऐसी कोई हैसियत है न शायद कोई पैसा है, उनकी पार्टी के खजाँची कह चुके हैं कि पार्टी ओवर ड्राफ्ट पर चल रही है.
इन हालात में कभी तथाकथित चाय बेचने वाले नरेंद्र मोदी के लिए, देश पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी राज करने वाले नेहरू-गांधी परिवार के वशंज को हराना एक बड़ी कामयाबी होगी, भले ही वे खुद मोदीनामी सूट पहन चुके हों जिसकी बाद में करोड़ों में नीलामी की गई.
हाल ही में मोदी सरकार के खिलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आई उसी की पुरानी साझीदार तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी), लेकिन पीएम मोदी ने टीडीपी के बदले कांग्रेस, नेहरू-गांधी परिवार और राहुल पर निशाना साधा, ये बेवजह नहीं है.
मोदी बस आसानी से हराने लायक प्रतिद्वंद्वी चुन रहे थे लेकिन विपक्ष ने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं. इस बात के आसार नहीं हैं कि विपक्ष मोदी के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रीय चेहरा आगे करेगा, उसकी रणनीति मोदी को अलग-अलग राज्यों में अलग तरह से टक्कर देने के बाद अंक-गणित की समस्या बाद में सुलझाने की है.
माने या न मानें, विपक्ष और मोदी-शाह दोनों एक तरह से सोच रहे हैं- नतीजे आने के बाद तय करेंगे क्या करना है, कैसे करना है. जनबल, धनबल, कॉर्पोरेट बल का हिसाब 2019 की गर्मियों में पूरी गर्मी के साथ दिखेगा, नतीजा चाहे जो हो.
बीजेपी के लिए ये बड़ा सिरदर्द यूँ है कि केंद्र और अधिकतर राज्यों की सत्ता पर काबिज़ बीजेपी अगर 272 के मैजिक नंबर तक नहीं पहुँच पाती तो उसे क्षेत्रीय दलों के सहयोग की ज़रूरत पड़ेगी, कांग्रेस के साथ कोई साझेदारी असंभव है और क्षेत्रीय पार्टियाँ अपने स्थानीय हितों के नाम पर किसी के साथ जा सकती हैं, इसलिए ये समझदारी और मजबूरी दोनों है.
रणनीति शायद ये होगी कि बीजेपी अपना कैम्पेन कांग्रेस के ख़िलाफ़ चलाए और क्षेत्रीय-प्रांतीय दलों से 2019 आम चुनाव के नतीजे आने के बाद गठबंधन का रास्ता खुला रखे, अगले कुछ महीनों में आप देखेंगे कि निशाने पर केवल और केवल राहुल होंगे, और बीजेपी के लिए इसी में समझदारी है.

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