Wednesday, May 22, 2019

चर्चा में रहे लोगों से बातचीत पर आधारित साप्ताहिक कार्यक्रम

शक्ति की सह-संस्थापक तारा कृष्णस्वामी कहती हैं, ''इस देश में महिला और पुरुष जिन समस्याओं का सामना करते हैं, जिन्हें वो जीते हैं वो बिल्कुल अलग होती हैं. हाल ही में लोकसभा में सेरोगेसी बिल पास किया गया है. संसद में 90 प्रतिशत सांसद पुरुष हैं जो चाहकर भी गर्भधारण नहीं कर सकते. फिर भी, इन पुरुषों ने महिलाओं के शरीर को नियमित करने वाला बिल पास कर दिया है. हमारी ​नीतियां देश की 50 प्रतिशत आबादी यानि महिलाओं की जरूरतों से मेल नहीं खातीं. इसलिए हमें ज़्यादा महिला नेताओं की जरूरत है.''
सिर्फ तारा जैसी महिला कार्य​कर्ता का ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र के आदिवासी गांव की रहने वाली 18 साल की यशोदा को भी लगता है कि देश में ज़्यादा महिला सांसदों और विधायकों की ज़रूरत है जो महिलाओं के मुद्दों को उठा सकें.
मैं हाल ही में यशोदा से मिली थी. वह और उनके आसपास के गांवों की महिलाएं पीढ़ियों से पानी की कमी का सामना कर रही हैं. लेकिन, इन महिलाओं को राहत देने के लिए कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया गया है. क्यों?
इसके जवाब में यशोदा सीधे कहती हैं, ''क्योंकि सरकार में कोई महिला मंत्री नहीं है.''
यशोदा को अपने आसपास के हालात देखकर राजनीति में महिलाओं की ज़रूरत होने का विचार आया. जब वह देखती हैं कि गांव के मर्दों को महिलाओं की इस समस्या से कोई खास मतलब नहीं है तो सोचती हैं कि राजनीति में भी पुरुष ऐसा ही करते होंगे.
वह कहती हैं, ''हो सकता है कि महिला मंत्री ही महिलाओं की स्थिति में कुछ बदलाव ला दे. पुरुषों ने तो अभी तक कुछ खास किया नहीं है.''
लेकिन, राजनीति पुरुषों की ही जागीर रही है. तमिलनाडु की द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम पार्टी से राज्यसभा सांसद कनिमोझी कहती हैं कि यहां तक कि महिलाओं को स्वीकारने के लिए पार्टी के ढांचे में भी बदलाव नहीं किया गया है.
'शक्ति' द्वारा आयोजित किए गए एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा, ''मैंने जिला सचिवों को अपने पिता से ये कहते सुना है कि उनके विधानसभा क्षेत्र में महिलाओं को न खड़ा करें. उन्हें लगता है कि इससे बहुत परेशानी होती है. यहां तक कि आज भी मैं ​लोगों को महिलाओं के बारे में पूर्वाग्रहों से घिरे देखती हूं. लेकिन, हर दूसरे क्षेत्रों की तरह महिलाओं को अपने लिए जगह बनानी होगी और राजनीति में भी रुकावटों की इस दीवार को तोड़ना होगा.''
बीजेपी प्रवक्ता शायना एनसी ने कहा कि राजनीति में महिलाओं को नियंत्रित किया जाता है या कुछ ख़ास भूमिकाओं तक सीमित कर दिया जाता है.
वह कहती हैं, ''किसी भी पार्टी में देखिए कि महिला नेता महिला मोर्चे की जिम्मेदारी ही संभाल रही हैं. वहीं, मुख्य पार्टियों में शामिल पुरुष अपने ही परीवार की महिला सदस्यों को राजनीति में ला रहे हैं.''
हालांकि, हर कोई ये नहीं सोचता कि महिलाओं को इसलिए चुनना चाहिए क्योंकि वो मुहिला मुद्दों को लेकर मसीहा साबित होंगी.
अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ की सचिव और सीपीआई में पॉलित ब्यूरो सदस्य कविता कृष्णन कहती हैं, ''हम नहीं जानते कि महिलाएं अच्छी कानून निर्माता होंगी या नहीं. और साफ तौर पर कहूं तो मुझे इसकी परवाह भी नहीं. मुझे नहीं लगता कि महिलाओं को इसलिए चुनना चाहिए क्योंकि वो महिला मुद्दों को प्रमुखता देंगी या वो कम भ्रष्ट होंगी या वो ज़्यादा नैतिक होंगी. उनके पास पुरुषों की तरह चुने जाने और शासन करने का अधिकार है.''
एक शोध के मुताबिक भारत में महिला विधायकों ने अपने विधानसभा क्षेत्रों की अर्थव्यस्था में हर साल 1.8 प्रतिशत से वृद्धि की है जो कि पुरुष विधायक की तुलना में ज़्यादा है.(पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें)
यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी वर्ल्ड इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स रिसर्च (यूनयू-डब्ल्यूआईडीईआर) के इस शोधपत्र में 1992 से 2012 के बीच 4,265 राज्य विधानसभाओं में अध्ययन किया गया है. इन सालों में चार लोकसभा चुनाव हुए थे. उन्होंने आर्थिक प्रदर्शन का पता लगाने के लिए रात्री प्रकाश की सेटेलाइट इमेजरी का इस्तेमाल किया था.
इस रिपोर्ट में सामने आया कि महिला नेता महिला और परिवार-समर्थक नीतियां लागू करके महिलाओं और बच्चों के मुद्दों का ज़्यादा प्रभावी प्रतिनिधित्व करती हैं. हालांकि, यह ये भी दिखाता है कि महिला विधायक सड़क संबंधी कार्यों को पूरा करने में भी बेहतर होती हैं जिससे की आधारभू​त संरचना में सुधार होता है. महिलाओं ने गांवों में पुरुषों के मुकाबले 22 प्रतिशत निर्माण पूरा किया है.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ये भी कहती है कि जीते हुए दागी नेताओं के मामले में भी महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले एक-तिहाई ही है. साथ ही सत्ता में रहते हुए उनकी संपत्ति में पुरुषों की तुलना में प्रति वर्ष 10 प्रतिशत कम वृद्धि होती है.
तारा कहती हैं, ''हमारे पास 2014 लोकसभा चुनावों में उम्मीदवारों का चुनाव आयोग को दिया गया डाटा है और यह दिखाता है कि ऐसी महिला नेताओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले आधी है जिनके आपराधिक मामले लंबित हैं.''
इन स्पष्ट लाभों के बावजूद, विश्व आर्थिक मंच के अनुसार संसद में महिलाओं के मामले में भारत 193 देशों में 153वीं रैंक पर है.
संसद में महिला विधायकों का वैश्विक औसत 25 फीसदी है. संसद में अधिकतम महिला सांसदों के मामले में शीर्ष तीन देशों में 63 प्रतिशत के साथ रवांडा, 58 प्रतिशत के साथ क्यूबा और 53 प्रतिशत के साथ बोलीविया शामिल हैं. जबकि भारत इस मामले में 11.8 प्रतिशत पर है.
यह साफ दिखाता है कि विकास का महिलाओं की संसद में भागीदारी से कोई सीधा संबंध नहीं है.
लेकिन, जैसा कि चुनावी और राजनीतिक सुधारों के लिए काम करने वाले एनजीओ असोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के मेजर जनरल अनिल वर्मा (सेवानिवृत्ति) कहते हैं कि ये अभी अंत नहीं है और न ही इस पर ​बहुत निराश होने की ज़रूरत है. वह कहते हैं कि चुनाव लड़ने वाली महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है.
चुनाव आयोग के आंकड़े कहते हैं कि महिला उम्मीदवारों की जीत का अनुपात हमेशा पुरुषों से ज़्यादा रहा है. हालांकि, उम्मीदवारों की संख्या बढ़ने के साथ ही दोनों वर्गों में जीतने का प्रतिशत भी गिरता है. यानि पुरुष हो या महिला जितने ज़्यादा उम्मीदवार खड़े होंगे उनके जीतने की संख्या का अनुपात भी गिरता जाएगा.
वह कहते हैं, ''हमें महिला मतदाताओं के प्रतिशत पर भी ध्यान देना चाहिए. यह भी बढ़ रहा है और ये अच्छे संकेत हैं.''

Friday, May 17, 2019

سنت غرينلاند قانون الإجهاض في 12 يونيو/حزيران عام 1975

لكن بغض النظر عن عمر المرأة، لا تتفق ستاين بروين مع فكرة أن الإجهاض يواجه باستخفاف في غرينلاند.
وتقول : "يعتقد معظم النساء أن الإجهاض قرار صعب، ويستغرقن وقتا للتفكير فيه. وإن تأكدن من قرارهن، فمن المحتمل ألا يظهرن أي صدمة".
وتضيف : "لم أقابل سيدة لا تهتم بالإجهاض، لكن تجربتي تشير إلى أن بعض السيدات لا يكترثن لحماية أنفسهن، ويمكن لبعض العاملين في مجال الرعاية الصحية أن ينظروا إلى هذا على أنه لا مبالاة."
ويعتقد بيدرسن أن إساءة تقدير هؤلاء النساء هو بسبب سوء التواصل، وعلى الرغم من أن اللغة الدنماركية هي إحدى اللغات الرسمية، إلا أن الأشخاص الذين يعيشون خارج العاصمة يميلون إلى التحدث بها بطلاقة أقل.
ويقول لارس بيدرسن: "الكثير من مرضاي لا يتحدثون اللغة الدنماركية بطلاقة والكثير من العاملين في المستشفى لا يتحدثون لغة غرينلاند بطلاقة".
كما يعتقد أنه لا ينبغي توقع حلول دنماركية لمشاكل غرينلاند.
ويقول : "نحتاج إلى إعادة التفكير في نقاط تركيزنا. يجب أن يكون التركيز على التصدي لقضايا العنف وسوء المعاملة وإدمان الكحول، وجميعها تعد سببا في حدوث حمل غير المرغوب فيه".
تقول بيا، البالغة من العمر 19 عاما من غرينلاند ، لبي بي سي: "لا أفكر في الأمر مرتين. نحن نتحدث عن الإجهاض علنا، وأتذكر عندما أخبرت جميع أصدقائي وعائلتي بآخر مرة أجريت فيها عملية إجهاض".
أجرت بيا خمس عمليات إجهاض خلال العامين الماضيين.
وتضيف الفتاة، وهي من مدينة نوك، عاصمة غرينلاند : "عادة استخدم وسائل حماية (من الإنجاب)، وأحيانا ننسى استخدامها. أنا لا أستطيع أن أنجب طفلا الآن، فأنا في عامي الدراسي النهائي في المدرسة".
ليست بيا الوحيدة في هذا الأمر، إذ تشير إحصاءات رسمية إلى أنه منذ عام 2013 سُجلت نحو 700 حالة ولادة و 800 عملية إجهاض سنويا.
لماذا تسجل غرينلاند مثل هذه المعدلات المرتفعة لحالات الإجهاض؟
على الرغم من أن غرينلاند تعد أكبر جزيرة في العالم، إلا أنه لا يسكنها سوى عدد قليل من السكان، فقط نحو 56 ألف نسمة، في أول يناير / كانون الثاني 2019، بحسب احصاءات رسمية.
وتجهض أكثر من نصف السيدات حملهن، أي بمعدل نحو 30 عملية إجهاض لكل ألف سيدة.
وتشير إحصاءات رسمية إلى أنه بالمقارنة، تسجل الدنمارك معدل إجهاض بواقع 12 حالة لكل ألف سيدة.
وعلى الرغم من تمتع غرينلاند رسميا بحكم ذاتي، فهي لا تزال إقليما تابعا للدنمارك.
وبينما تسهم الصعوبات الاقتصادية والظروف السكنية السيئة ونقص التعليم في ارتفاع معدلات الإجهاض، فهي لا تفسر كل شيء في دولة مثل غرينلاند التي تتيح وسائل منع الحمل بالمجان فضلا عن سهولة الحصول عليها.
ويظل الإجهاض في كثير من الدول، حتى عندما يكون قانونيا وبحرية، اختيارا موصوما.
ولا تشعر بعض السيدات بقلق في غرينلاند، إذ لا يعتبرن أن الحمل غير المرغوب فيه من الأشياء التي تستوجب الحرج.
ولكن لماذا تزداد حالات الحمل غير المرغوب فيه؟
تقول بيا : "أجرت معظم صديقاتي عمليات إجهاض. كما أجرت أمي ثلاث عمليات إجهاض قبل أن تلدني أنا وأخي، إنها لا تحب الحديث بشأن ذلك."
وتقول توري هيرماندسدوتير، باحثة دكتوراه تدرس موضوع الإجهاض في جامعة روسكيلد في الدنمارك : "تستطيع الطالبات في مدينة نوك الذهاب إلى عيادة الصحة الجنسية يوم الأربعاء، وهو اليوم الذي يعرف باسم (يوم الإجهاض)".
وتضيف : "لا يبدو أن النقاش بشأن الإجهاض في غرينلاند يخضع لمحرمات أو استياء أخلاقي، وكذلك الجنس قبل الزواج أو الحمل غير المخطط له".
تقول بيا : "وسائل منع الحمل مجانية وسهل الحصول عليها، لكن الكثير من صديقاتي لا يستخدمنها".
وتقول ستين برينو، ممرضة متخصصة في أمراض النساء في غرينلاند وترصد حالات الإجهاض منذ سنوات، لبي بي سي : "ق نحو 50 في المئة من سيدات شملهن استطلاع رأي قلن إنهن يعرفن وسائل منع الحمل، لكن أكثر من 85 في المئة لم يستخدمنها أو استخدمنها بشكل غير صحيح".
وأضافت أن حالات الحمل غير المرغوب فيه قد تحدث بسبب استهلاك الكحول : "إذ ينسى الرجل والمرأة استخدام وسائل منع الحمل تحت تأثير الشراب".
وتقول هيرماندسدوتير، وفقا لبحثها، إنه توجد ثلاثة أسباب وراء عدم استخدام السيدات وسائل منع الحمل في غرينلاند.
وتضيف : "(أولا) السيدات اللواتي يرغبن في طفل، (ثانيا) السيدات اللواتي تتعرض حياتهن لاضطرابات تحت تأثير العنف والكحول قد ينسين تناول حبوب منع الحمل، و(أخيرا) إذا رفض الشريك استخدام الواقي الذكري".
قد تقرر سيدة إجهاض حملها إن حدث بسبب اغتصاب، أو عندما لا ترغب في إنجاب طفل في منزل يشوبه الاضطراب.
ويقول لارس موسغارد، طبيب محلي من بلدة صغيرة في جنوب غرينلاند : "قد يكون الإجهاض أفضل من إنجاب أطفال يواجهون الإهمال وعدم الرغبة فيهم."
ويشير مركز الشمال الأوروبي للرعاية والقضايا الاجتماعية إلى أن العنف مشكلة صحية متكررة في غرينلاند، إذ تحدث طالب واحد من بين كل 10 طلاب عن تعرض أمهاتهم للعنف.
وبخلاف حوادث العنف، يكون الأطفال أيضا ضحايا.
وقالت ديتي سولبيك، مديرة خطة حكومية لمكافحة الاعتداء الجنسي، لهيئة الإذاعة الدنماركية : "تعرض ثُلث سكان غرينلاند الكبار لشكل من أشكال سوء المعاملة عندما كانوا أطفالا".